Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


25. नियुक्त का शुल्क : वैशाली की नगरवधू

इस प्रकार उस नगर में रहते हुए हर्षदेव को तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में उसने सेट्ठिपुत्र की चारों वधूटियों में तीन पुत्र और दो पुत्रियां उत्पन्न कीं। अपने घर को शिशुओं से आह्लादित और प्रसादित देखकर वृद्धा बहुत प्रसन्न रहने लगी। बालक बड़े ही स्वस्थ और सुन्दर थे। वे बुद्धिमान भी थे, जैसे कि संकर रक्त की संतान होती ही है। पहले हर्षदेव अपने को मात्र नियुक्त समझकर इन सबसे उदासीन रहता था, बीच-बीच में वह देवी अम्बपाली का भी ध्यान करता था; परन्तु ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, उसने सोचा, क्यों न मैं अब सब बातों को भूलकर कृतपुण्य रहकर ही जीवन व्यतीत करूं। चारों बहुएं भी अब उससे प्रेम करने लगी थीं। खासकर तृतीया की उस पर अधिक आसक्ति थी। वह सब वधूटियों में चतुरा, प्रगल्भा, बुद्धिमती और सुन्दरी भी थी। उसका पिता चम्पा का एक धनी सेट्ठि सार्थवाह था।

परन्तु बुढ़िया की योजना विशुद्ध वैधानिक थी। अब वह सोचने लगी थी, मेरा काम हो चुका। जो करना था, कर लिया। मेरे पुत्र के पुत्र हो गए, मेरा वंश चल गया। मेरी सम्पत्ति और मेरे कुल की रक्षा हो गई। अब वह नियुक्त मोघपुरुष जाए। वह इस सम्बन्ध में हर्षदेव से बातचीत करने का अवसर ढूंढ़ने लगी। उसके मन से उसका आदर-भाव बहुत कम हो गया। उसका घर में स्वामी की भांति रहना, उसका पुत्र-वधुओं के प्रति पति-भाव से व्यवहार करना, स्वच्छन्दता से भीतर-बाहर आना-जाना, मनमाना द्रव्य खर्च करना, सब उसे अखरने लगा। वह उसे घर से निकाल बाहर करने की युक्ति सोचने लगी।

एक दिन उसे अवसर भी मिल गया। कपिशाकाम्पिल्य के कुछ सार्थवाह नगर में आए थे। उनके साथ कुछ उत्तम अजानीय अश्व थे। उनसे हर्षदेव ने अपने लिए एक अश्व सहस्र स्वर्ण में खरीद लिया। अन्ततः वह सामन्त पुत्र था। अश्व पर चढ़कर चलने और शस्त्र धारण करने का वह अभ्यस्त था। सेट्ठि-पुत्र के अलस अभिनय से कभी-कभी ऊबकर वह अश्व पर शस्त्र लेकर मृगया करने और भुना हुआ शूकर-शूल्य खाने को छटपटा उठता था। कृतपुण्य का सेट्ठि परिवार श्रावक था, अतः यहां उसे मांस नहीं मिल रहा था।

सो अश्व खरीदकर और नये अश्व पर सवार होकर वह प्रसन्न होता हुआ घर पहुंचा और उपास्था को पुकारकर कहा कि वह सार्थवाहक को सहस्र स्वर्ण दे दे, जो उसके साथ-साथ ही आया था। बुढ़िया को अवसर मिल गया। वह क्रुद्ध होकर बाहर आई, उसने कहा—"कैसा सहस्र स्वर्ण?"

"मैंने अश्व खरीदा है मातः।"

"परन्तु किसलिए?"

"मैं कभी-कभी वन-विहार हो जाया करूंगा?"

"तो तू निरन्तर वन-विहार कर, मेरी तरफ से तुझे छुट्टी है।"

"इसका क्या मतलब है?"

"अरे मोघपुरुष, तू मतलब पूछता है? क्या तू नहीं जानता कि तू नियुक्त है? जा, तेरी नियुक्ति समाप्त हुई। मेरा कार्य पूरा हुआ। तूने कहा था कि तू कृत-संकल्प है। जा, अपना संकल्प पूर्ण कर।"

"तो क्या मैं अब तेरा कृतपुण्य पुत्र नहीं?"

"नहीं रे मोघपुरुष, नहीं!"

"तो मैं राजद्वार में अभियोग उपस्थित करता हूं कि तू मुझ पुत्र को वंचित करती है। मैं कृतपुण्य हूं, यह सभी जानते हैं।"

"तो तू अभियोग उपस्थित कर, मैं कहूंगी, इस वंचक ने मेरा पुत्र बनकर मुझे ठगा है, मेरा कुल कलंकित किया है, तुझे शूली मिलेगी। अरे मोघपुरुष, तू कब मेरा कृतपुण्य था!"

मध्यमा ने आकर कहा—"मातः, यह विवाद ठीक नहीं है। इससे कुल कलंकित होगा तथा तेरे पौत्र अवैधानिक प्रमाणित होंगे और सम्पत्ति उन्हें नहीं मिलेगी।"

"तो तू क्या कहती है कि मैं इस धूर्त को जीवन-भर सिर पर लादे फिरूं? और वह मेरे पुत्र और पति की सम्पत्ति और मेरी वधुओं का आजीवन भोक्ता बना रहे?"

"तो उसे शुल्क देकर विदा कर दो।"

"कैसा शुल्क?"

हर्षदेव ने क्रुद्ध होकर कहा—

"क्या तूने शुल्क देने का वचन नहीं दिया था?"

"पर तूने खाया-पीया भी तो है; अरे भिक्षुक मोघपुरुष, स्मरण कर उस दिन को, जब तू चीथड़े पहने जंगल में भटक रहा था। तीन वर्षों में कितना खाया है रे पेटू, तनिक हिसाब तो लगा?"

"अरी कृत्या, तू अब मेरा पेट नापती है! नहीं जानती, मैं सामन्त हूं। अभी खड्ग से तेरा शिरच्छेद करूंगा।" हर्षदेव क्रुद्ध होकर खड्ग निकालने लगा।

बुढ़िया डर गई। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मध्यमा ने कहा—"मातः, अभी सब वीथिवासी आ जाएंगे, भेद खुल जाएगा, तेरा कुल दूषित होगा।"

"तो यह मोघपुरुष अभी मेरे घर से चला जाए।"

हर्षदेव ने कहा—"अभी जाता हूं , परन्तु तुझ कुट्टनी की प्रतिष्ठा के लिए नहीं, अपनी प्रतिष्ठा के लिए।" इसके बाद उसने सार्थवाह से कहा—" हन्त मित्र, मैं तुम्हारा अश्व इस समय नहीं खरीद सकता, अश्व ले जाओ और तुम्हें जो कष्ट हुआ, उसके लिए यह मुद्रिका ले लो।"

इसके बाद हर्षदेव सब बहुमूल्य वस्त्रालंकार उतार-उतारकर फेंकने लगा। केवल एक प्रावार अंग से लपेटकर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।

चारों वधूटियां आंखों में आंसू भर खड़ी देखती रहीं। मध्यमा ने आगे बढ़कर कहा—"भद्र, यों नहीं यह कुल-मर्यादा के विपरीत है। एक मुहूर्त-भर ठहरो, मैं पाथेय तैयार करती हूं। पाथेय साथ लेकर जाना।"

बुढ़िया ने बाधा नहीं दी और हर्षदेव ने भी मौन स्वीकृति दी। मध्यमा ने बहुत-सा घी-चीनी डालकर दो बड़े-बड़े मधुगोलक बनाए। उनमें से एक में मुट्ठी-भर रत्न-मणि भी भर दिए। पाथेय हर्षदेव के हाथ में देकर हौले-से कहा—"भद्र, चम्पा जाना, वहां पिता के यहां रहकर मेरी प्रतीक्षा करना।"

इतना कह वह हर्म्य में चली गई और हर्षदेव डाल से टूटे पत्ते की भांति फिर निराश्रय हो पथ पर आगे बढ़ा।

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1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:39 AM

Good

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